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गीता प्रेस, गोरखपुर >> श्रीविष्णुपुराण

श्रीविष्णुपुराण

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :533
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1194
आईएसबीएन :81-293-0117-2

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इस श्रीविष्णुपुराण में भगवान् विष्णु की महिमा का वर्णन किया गया है....

Shri Vishanu Puran a hindi book by Gitapress - श्रीविष्णुपुराण - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

अष्टादश महापुराणों में श्रीविष्णुपुराण का स्थान बहुत ऊँचा है। इसके रचयिता श्रीपराशरजी हैं। इसमें अन्य विषयों के साथ भूगोल, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, राजवंश और श्रीकृष्ण-चरित्र आदि कई प्रंसगों का बड़ा ही अनूठा और विशद वर्णन किया गया है। भक्ति और ज्ञान की प्रशान्त धारा तो इसमें सर्वत्र ही प्रच्छन्न रूप से बह रही है। यद्यपि यह पुराण विष्णुपरक है तो भी भगवान शंकर के लिये इसमे कहीं भी अनुदार भाव प्रकट नहीं किया गया। सम्पूर्ण ग्रन्थ में शिवजी का प्रसंग सम्भवतः श्रीकृ्ष्ण-बाणासुर-संग्राम में ही आता है, सो वहाँ स्वयं भगवान् कृष्ण महादेवजी के साथ अपनी  अभिन्नता प्रकट करते हुए श्रीमुखसे कहते हैं-

त्वया यदभयं दत्तं तद्दत्तमखिलं मया। मत्तोऽविभिन्नमात्मानं द्रुष्टुमर्हसि शङ्कर।।47।।
योऽहं स त्वं जगच्चेदं सदेवासुरमानुषम्। मत्तो नान्यदशेषं यत्तत्त्वं ज्ञातुमिहार्हसि  ।।47।।
अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः। वन्दति भेदं पश्यन्ति चावयोरन्तरं हर ।।49।।

(अंश 5 अध्याय 33)


हाँ, तृतीय अंश में मायामोहके प्रसंग में बौद्ध और जैनियों के प्रति कुछ कटाक्ष अवश्य किये गये हैं। परन्तु इसका उत्तरदायित्व भी ग्रन्थकारकी अपेक्षा उस प्रसंगको ही अधिक है। वहां कर्मकाण्ड का प्रसंग है और उक्त दोनों सम्प्रदाय वैदिक कर्म  के विरोधी हैं, इसलिये उनके प्रति कुछ व्यगं वृद्धि हो जाना स्वाभाविक ही है। अस्तु !

आज सर्वान्तर्यामी सर्वेश्वरी की असीम कृपा से मैं इस ग्रन्थरत्र का हिन्दी-अनुवाद पाठकों के सम्मुख रखने में सफल हो सका हूँ- इससे मुझे बड़ा हर्ष हो रहा है। अभीतक हिन्दी में इसका कोई भी अविकल अनुवाद प्रकाशित नहीं हुआ था। गीता प्रेस ने इसे प्रकाशित करने का उद्योग करके हिन्दी-साहित्य का बड़ा उपकार  किया है। संस्कृत में इसके ऊपर विष्णुचिति और श्रीधरी दो टीकाएँ हैं, जो वेंकटेश्वर स्टीमप्रेस बम्बई से प्रकाशित हुई हैं। प्रस्तुत अनुवाद भी उन्हीं के आधार पर किया गया है; तथा इसमें पूज्यपाद महामहोपाध्याय पं० श्रीपञ्चाननजी तर्करत्रद्वारा सम्पादित बंगला-अनुवादसे भी अच्छी सहायता ली गयी है। इसके लिये मैं श्रीपण्डितजीका अत्यन्त आभारी हूँ।

अनुवाद में यथासम्भव मूलका ही भावार्थ दिया गया है। जहाँ स्पष्ट करने के लिये कोई बात ऊपर से लिखी गयी है वहाँ ( ) ऐसा तथा जहाँ किसी शब्द का भाव व्यक्त करने के लिये कुछ लिखा गया है वहाँ ( ) ऐसा कोष्ठ दिया गया है जो श्लोक स्मरण रखनेयोग्य समझे गये हैं। उन्हें रेखाकिंत कर दिया गया है; इससे पाठकों के लिये ग्रन्थ की उपादेयता बहुत बढ़ जायगी।
अन्त में, जिन चराचरनियन्ता श्रीहरिकी प्रेरणा मैंने, योग्यता न होते हुए भी, इस ओर बढ़ने का दुःसाहस किया है उनसे क्षमा मांगता हुआ उन लीलामयका यह लीला उन्हीं के चरणकमलों में समर्पित करता हूँ।

विनीत अनुवादक

श्री विष्णुपुराण
प्रथम अंश


नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्त्मम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्।।

पहला अध्याय


ग्रन्थ का उपोद्घात

श्रीसूत उवाच

ॐ  पराशरं मुनिवर कृतपौर्वाह्विकक्रियम्।  
मैत्रेयः परिपप्रच्छ प्रणिपत्याभिवाद्य च।। 1

त्वत्तो हि वेदाध्ययनमधीतमखिलं गुरो।
धर्मशास्त्राणि सर्वाणि तथाङ्गानि यथाक्रमम् ।।2

त्वत्प्रसादान्मुनिश्रेष्ठ मामन्ये नाकृतश्रमम्।
वक्ष्यन्ति सर्वशास्त्रेषु प्रायशो येऽपि विद्विषः ।।3

सोऽहमिच्छामि धर्मज्ञ श्रोतुं त्वत्तो यथा जगत्।
बभूव भूयश्र्च यथा महाभाग भविष्यति।।

यन्मयं च जगद्ब्रह्मन्यतश्र्चैतच्चराचरम्।
लीनमासीद्यथा यत्र लयमेष्यति यत्र च ।। 5

यत्प्रमाणानि भूतानि देवादीनां च सम्भवम्
समुद्रपर्वतानां च संस्थानं च यथा भुवः।6।  
सूर्यादीनं च संस्थानं प्रमाणं मुनिसत्तम।
देवादीनां तथा वंशान्मनून्वन्तराणि च।।7

कल्पान् कल्पविभागांश्र्च चातुर्युगविकल्पितान्।
कल्पान्तस्य स्वरूपं च युगधर्मांश्च कृत्स्त्रशः ।। 8


श्रीसूत जी बोले- मैत्रेयजीने नित्यकर्मों से निवृत्त हुए मुनिवर पराशरजी को प्रमाण कर एवं उनके चरण छूकर पूछा- ।।1।। ‘‘हे गुरुदेव ! मैंने आपहीसे सम्पूर्ण वेद, वेदांग और सकल धर्मशास्त्रों का क्रमशः अध्ययन किया है।।2।। हे मुनिश्रेष्ठ ! आपकी कृपा से मेरे विपक्षी भी मेरे लिये यह नहीं कह सकेंगे कि ‘मैंने  सम्पूर्ण शास्त्रों के अभ्यासमें परिश्रम नहीं किया।’।।3।। हे धर्मज्ञ ! हे महाभाग। अब मैं आपके मुखारविन्द से यह सुनना चाहता हूं कि यह जगत् किस प्रकार उत्पन्न हुआ और आगे भी (दूसरे कल्पके आरम्भ में) कैसे होगा ?।। 4।। तथा हे ब्रह्यन् ! इस संसार का उपादान-कारण क्या है ? यह सम्पूर्ण चराचर किसके उत्पन्न हुआ है ? यह पहले किसमें लीन था और आगे किसमें लीन हो जायगा ? ।।5।। इसके अतिरिक्त (आकाश आदि) भूतों का परिणाम, समुद्र, पर्वत तथा देवता आदि की उत्पति पृथ्वी का अधिष्ठान और सूर्य आदिका परिणाम तथा उनका आधार देवता आदि के  वंश, मनु मन्वन्तर (बार -बार आनेवाले) चारों युगों में विभक्त कल्प और कल्पों के विभाग, प्रलयका स्वरूप, युगों के

देवर्षिपार्थिवानां च चरितं यन्महामुने।
वेदशाखाप्रणयनं यथावद्धयासकर्तृकम् ।।9

धर्मांश्र्चब्राह्मणादीनं तथा चाश्रमवासिनाम्।
श्रोतुमिच्छाम्यहं सर्व त्वत्तो वासिष्ठनन्दन ।।10

ब्रह्मन्प्रसादप्रवणं कुरुव्ष मयि मानसम्।
येनाहमेतज्जानीयां त्वत्प्रसादान्महामुने।। 11


श्रीपराशर उवाच


साधु मैत्रेय धर्मज्ञ स्मारितोऽस्मि पुरातनम्।
पितुः पिता मे भगवान् वसिष्ठो यदुवाच ह।।12

विश्नामित्रप्रयुक्तेन रक्षसा भक्षितः पुरा।
श्रुतस्तातस्ततः क्रोधो मैत्रेयाभून्ममातुलः ।।13

ततोऽहं रक्षसां सत्रं विनाशाय समारभम्।
भस्मीभूताश्र्च शतशस्तस्मिन्सत्रे निशाचरः ।।14

ततः सङ्क्षीयमाणेषु तेषु रक्षस्स्वशेषतः
मामुवाच महाभागो वसिष्ठो मत्पितामहः ।।15

अलमत्यन्तकोपेन तात मन्युमिमं जहि।
 राक्षसा नापराध्यन्ति पितुस्ते विहितं हि तत् ।।16

मूढ़ानामेव भवति क्रोधो ज्ञानवतां कुतः।
हन्यते तात कः केन यतः स्वकृतभुक्पुमान्। 17

सञ्चितस्यापि महता वत्स क्लेशेन मानवैः ।
यशसस्तपसश्र्चैव क्रोधो नाशकरः परः।। 18

स्वर्गापवर्गव्यासेधकारणं परमर्षयः ।
वर्जयन्ति सदा क्रोधं तात मा तद्वशो भव।। 19

अलं निशाचरैर्दग्धैर्दीनैरनपकारिभिः।।
सत्रं ते विरमत्वेतत्क्षमासारा हि साधवः।।20
 
एवं तातेन तेनाहमनुनीतो महात्मना।
उपसंहृतवान्सत्रं सद्यस्तद्वाक्यगौरवात् ।। 21

ततः प्रीतः स भगवान्वसिष्ठो मुनिसत्तमः।
सम्प्राप्तश्र्च तदा तत्र पुलस्त्यो ब्रह्मणः सुतः।। 22

पितामहेन दत्तार्घ्यः कृतासनपरिग्रहः।
मामुवाच महाभागो मैत्रेय पुलहाग्रजः।।23


 पृथक्-पृथक् सम्पूर्ण धर्म, देवर्षि और राजर्षियों के चरित्र, श्रीव्यासजीकृत वैदिक शाखाओं की यथावत् रचना तथा ब्राह्मणादि वर्ण और ब्रह्मचर्यादि आश्रमों के धर्म—ये सब, हे महामुनि शक्तिनन्दन ! मैं आपसे सुनना चाहता हूँ।। 6-10।। हे ब्रह्मन् ! आप मेरे प्रति अपना चित्त प्रसादोन्मुख कीजिए जिससे हे महामुने ! मैं आपकी कृपा से यह सब जान सकूँ’’।। 11 ।।

श्रीपराशर जी बोले—‘‘हे धर्मज्ञ मैत्रेय ! मेरे पिताजी के पिता श्री वशिष्ठजीने जिसका वर्णन किया था, उस पूर्व प्रसंग का तुमने मुझे अच्छा स्मरण कराया—
(इसके लिए तुम धन्यवाद के पात्र हो)।। 12 ।। हे मैत्रेय ! जब मैंने सुना कि पिताजी को विश्वामित्र की प्रेरणा से राक्षस ने खा लिया है, तो मुझे बड़ा भारी क्रोध हुआ।। 13 ।। तब राक्षसों का ध्वंस करने के लिए मैंने यज्ञ करना आरंभ किया। उस यज्ञ में सैकड़ों राक्षस जलकर भस्म हो गए।। 14 ।। इस प्रकार उन राक्षसों को सर्वथा नष्ट होते देख मेरे महाभाग पितामह वशिष्ठजी मुझसे बोले—।। 15 ।। ‘‘हे वत्स ! अत्यन्त क्रोध करना ठीक नहीं, अब इसे शान्त करो। राक्षसों का कुछ भी अपराध नहीं है, तुम्हारे पिता के लिए तो ऐसा ही होना था। ।। 16 ।।  क्रोध तो मूर्खों को ही हुआ करता है, विचारवान वालों को कैसे हो सकता है ? पुरुष स्वयं ही अपने किए का फल भोगता है ।। 17 ।। हे प्रियवर ! यह क्रोध तो मनुष्य के अत्यन्त कष्ट से संचित यश और तप का भी प्रबल नाशक है।। 18 ।।  हे तात ! इस लोक और परलोक दोनों को बिगाड़ने वाले इस क्रोध का महर्षिगण सर्वदा त्याग करते हैं, इसलिए तू इसके वशीभूत मत हो ।। 19 ।। अब इन बेचारे निरपराध राक्षसों को दग्ध करने से कोई लाभ नहीं; अपने इस यज्ञ को समाप्त करो। साधुओं का धन तो सदा क्षमा ही है’’।। 20 ।।

महात्मा दादादी के इस प्रकार समझाने पर उनकी बातों के गौरव का विचार करके मैंने वह यज्ञ समाप्त कर दिया ।। 21 ।। इससे मुनि श्रेष्ठ भगवान् वशिष्ठजी बहुत प्रसन्न हुए। उसी समय ब्रह्माजी के पुत्र पुलस्त्यजी वहाँ आए ।। 22 ।। हे मैत्रेय ! पितामह (वशिष्ठजी) ने उन्हें अर्घ्य दिया, तब वे महर्षि पुलह के ज्येष्ठ भ्राता महाभाग पुलस्त्यजी आसन ग्रहण करके मुझसे बोले ।। 23 ।।


 

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